उम्मीद!
ज़िंदगी चल रही थी, पर वक़्त थमा सा था, साँसे चलती थी, पर सपनो में कमी सी थी, हर राह अनजानी थी, हर राह अकेली थी, पर चलते रहे हम राहों पर बस उम्मीद ही तो अपनी थी। दबा के हर जज़्बात, दफना के हर ख़यालात, चलना चाहा वक़्त की रफ़्तार से, भूल के हर सितम, मुस्कुरा कर बस हम, चल पड़े थे ज़िन्दगी की तलाश में, उम्मीद न थी इस सिरे, न मिली कभी उस सिरे, बिखर सी रही थी ज़िन्दगी, कभी इस सिरे तो कभी उस सिरे। बिखरे सिरों को समेटे हुए, अपनी उम्मीद को संजोते हुए, ये कहा लाई थी ज़िन्दगी फिरभी, दो पल का सुकून था जहाँ, सूकून वैसा और कहाँ, घर अपना था पुकारता, पिता के सपनो को खंगालता, माँ मेरी भी सोई नहीं, उम्मीद मेरी अभी खोई नहीं।