गाँव में शहर !
बात शहर के दिखावे या गाँव के भरोसे
की नहीं,
यहाँ बात है एक दूसरे को अपनाने की
तो क्या हुआ अगर देहात मुक्कमल है जज़्बातों से ,
शहर ने भी उसे बखूबी गले से लगाया है।
मिठास उसकी बोली में है तो क्या हुआ,
शब्दों ने ही तो संसार बिगाड़ा और बनाया है,
हो सकता है मिठास उसकी कोशिशों में भी उतनी ही थी ,
पर देहात ने भी कहाँ उसे कभी स्वीकारा है
न आज़माइये हर रूह को संशय के पैमाने से ,
ज़रूरी नहीं जो दिखाई दे वो ही सच हो,
इस दुविधा के
पुराने खेल में अक्सर,
कई रिश्ते जल कर राख हुए ।
क्या शहर है और क्या है गाँव,
सब हमसे ही तो आबाद हुए हैं,
अपनी अपनी संस्कृतियों की कोशिशों में,
न जाने गुम क्यों इनके जज़्बात हुए हैं।
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